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सिनेमाघरों की स्क्रीन पर कैसे पहुंचती हैं फिल्में? फ्लॉप-हिट होने पर किसे होता है नुकसान-फायदा?

इंडियन सिनेमा में अलग-अलग भाषाओं में हर साल तमाम फिल्में बनाई जाती हैं। इन फिल्मों को बनाने के लिए काफी समय और काफी लोग लगते हैं। काफी मेहनत और काफी पैसे खर्चे होने के बाद एक फिल्म को तैयार किया जाता है। जब फिल्म तैयार होकर सिनेमाघरों में पहुंचती है तो इनमें से कुछ बॉक्स ऑफिस पर बंपर कमाई करती हैं तो कुछ फ्लॉप साबित होती हैं। अब समझने वाली बात है कि फिल्म बनने के बाद बाद सिनेमाघरों की स्क्रीन तक कैसी पहुंचती हैं। इसके साथ ही लोगों के मन में सवाल होता है कि फिल्म के फ्लॉप होने पर किसे नुकसान होता है और हिट होने पर किसे फायदा होता है। आइए हम आपको बताते हैं कि किसी फिल्म को बनाने के बाद सिनेमाघरों तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है और इसके साथ ये भी बताएंगे कि फिल्म के हिट या फ्लॉप होने पर किसे फायदा या नुकसान होता है।

मेकर्स और सिनेमाघरों के बीच कड़ी का काम करते हैं डिस्ट्रीब्यूटर

एक फिल्म बनाने के लिए डायरेक्टर और एक्टर से लेकर कोरियोग्राफर और प्रोड्यूसर तक सभी की जिम्मेदारी होती है। जब एक फिल्म बनकर तैयार होती है तो इसे सिनेमाघरों में पहुंचाने की जिम्मेदारी डिस्ट्रीब्यूटर्स की होती है। मेकर्स यानी प्रोड्यूसर फिल्म को बनाने में पैसा लगाते हैं और जब फिल्म बनकर तैयार हो जाती है तो वह डिस्ट्रीब्यूटर पास लेकर जाते हैं। इसके बाद फिल्म को सिनेमाघरों की स्क्रीन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी डिस्ट्रीब्यूटर की होती है। डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म को खरीदने के बाद इसे राज्यों और फिल्म सर्किट में खुद बेचते हैं या फिर सब-डिस्ट्रीब्यूर को बेच देते हैं। इस तरह से डिस्ट्रीब्यूर और सब डिस्ट्रीब्यूर का काम फिल्म को सिनेमाघरों तक पहुंचाना होता है। आसान भाषा में समझें तो मेकर्स और सिनेमाघरों के बीच डिस्ट्रीब्यूटर कड़ी का काम करते हैं। इस तरह से फिल्म बनने के बाद डिस्ट्रीब्यूटर की मदद से सिनेमाघरों तक पहुंचती है। बताते चलें कि कई बार ऐसा होता है कि फिल्म को बनाने वाले प्रोड्यूसर या प्रोडक्शन कंपनी खुद की डिस्ट्रीब्यूशन का भी काम करती है। उदाहरण के तौर पर समझिए कि यशराज फिल्म्स, धर्मा प्रोडक्शन सहित कई मेकर्स अपनी फिल्म का बनने के बाद खुद ही डिस्ट्रीब्यूशन का काम भी करते हैं।

फिल्म के हिट और फ्लॉप पर ऐसे तय होता है फायदा और नुकसान

अब बात आती है कि मेकर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स के बीच फिल्म को लेकर किस तरह से सौदा होता है। एक तरीका है कि मेकर्स फिल्म में लगी लागत से ज्यादा में डिस्ट्रीब्यूटर को बेच देता है। अब अगर फिल्म फ्लॉप हुई तो डिस्ट्रीब्यूटर को नुकसान और हिट होने पर फायदा होता है। इस तरह के सौदे में मेकर्स पुरी तरह सुरक्षित रहते हैं। एक तरीका होता है कि डिस्ट्रीब्यूटर को फिल्म के मुनाफे से कुछ कमीशन मिलता है और मेकर्स पर फिल्म के चलने या ना चलने का पूरा रिस्क होता है। एक तरीका होता है कि डिस्ट्रीब्यूटर एक रकम तय करके मेकर्स को दे देते हैं, चाहें फिल्म हिट हो या फ्लॉप हो। अगर फिल्म हिट होती है तो मुनाफे का कुछ हिस्सा रॉयलटी के तौर पर मेकर्स को दिया जाता है। इस तरीके में फिल्म को लेकर होने वाला रिस्क मेकर्स और डिस्ट्रीब्यूटर में बराबर होता है। बताते चलें कि डिस्ट्रीब्यूटर कई बार फिल्म के डिजिटल और सैटेलाइल राइट बेचकर भी पैसा कमाते हैं।

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Aslam Khan

हर बड़े सफर की शुरुआत छोटे कदम से होती है। 14 फरवरी 2004 को शुरू हुआ श्रेष्ठ भारतीय टाइम्स का सफर लगातार जारी है। हम सफलता से ज्यादा सार्थकता में विश्वास करते हैं। दिनकर ने लिखा था-'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।' कबीर ने सिखाया - 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर'। इन्हें ही मूलमंत्र मानते हुए हम अपने समय में हस्तक्षेप करते हैं। सच कहने के खतरे हम उठाते हैं। उत्तरप्रदेश से लेकर दिल्ली तक में निजाम बदले मगर हमारी नीयत और सोच नहीं। हम देश, प्रदेश और दुनिया के अंतिम जन जो वंचित, उपेक्षित और शोषित है, उसकी आवाज बनने में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। दरअसल हम सत्ता नहीं सच के साथ हैं वह सच किसी के खिलाफ ही क्यों न हो ? ✍असलम खान मुख्य संपादक

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